अभी कुछ ही दिनों पहले की बात है,
सभी अखबारों में, मुख्य समाचारों, सोशल मीडिया पर कश्मीर मैं आई बाढ़ की खबर सुर्ख़ियों में थी. मेरी भी न जाने बिना काम की व्यस्तता इतनी है की स्वयं समाचार सुनने की जगह दूसरों के मुंह से ही खबर का पता चला. सुनकर स्तबद्ध रह गयी की कश्मीर में भी बाढ़ आ सकती है क्या? कभी सोचा न था इस बारे में और कश्मीर को लेकर कभी बाढ़ जैसी चिंता ना हुई थी, हाँ आतंकवाद, सांप्रदायिक हिंसा तो कई बार सुनने में आया.
पर बाढ़?…
वैसे भी मैंने तो कश्मीर को हमेशा भारत के नक़्शे में ऊपर ही देखा था जहाँ पर इतने ऊँचे पहाड़ हैं की पानी का रुकना संभव ही नहीं लगता था और अभी-अभी यह भी सुना था की ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय पर जमी बर्फ पिघल जायेगी और सब डूब जायेगा. पर बचपन की मेरी समझ में तो डूबने की प्रक्रिया सबसे पहले नीचले हिस्से से शुरू होनी चाहिए थी. यह कैसे हो गया? कश्मीर कैसे डूब गया? यही आश्चर्य मुझे केदारनाथ में आई आपदा के दौरान हुआ था? इतने ऊंचे पर्वतों के बीच बाढ़ का आना सच ऊपर वाले का रुष्ठ होना ही जान पड़ता है. पहले तो कभी ऐसी ख़बरें सुनने में नहीं आती थी पर अब तो आये दिन भूकंप, बाढ़, सुनामी, और न जाने क्या क्या?
क्यूँ हो रहा है ये सब, क्यूँ अब हर मौसम का मज़ा लेने की बजाय उससे आने के पहले ही मेरे मन में भय घर कर लेता है? क्यूँ मैं बारिश न होने पर पहले सूखे से और फिर बारिश शुरू होने के बाद बाढ़ से डरने लगती हूँ? क्यूँ सर्दियाँ इतनी सर्द हो गयी की खून तक जमा दे? और गर्मी इतनी गर्म की हमारे अन्दर तक के पानी की हर बूँद को भाप बना दें? क्यूँ मुझे किसी प्राकृतिक सौंदर्य की जगह पर जाते वक़्त स्वप्न में पहाड़ फिसलते, रास्ते टूटते, और पानी ऊपर आता दीखता है. पहले तो बस शेर, चीते आदि हिंसक पशुओं से डर रहता था अब क्यूँ सबसे ज्यादा डर मुझे अब प्रकृति से लगता है? अगर इतनी प्राकृतिक आपदाएं होती रही तो मुझे लगता है की अब हमारे बच्चों को भूगोल में हमारी प्रकृति से ज्यादा बड़ा अद्ध्याय, पाकृतिक आपदाओं का पढना पढ़ेगा. खैर अभी मुद्दा यह नहीं है की प्रकृति का समीकरण बिगड़ रहा है मुद्दा तो यह है की यह क्यूँ बिगड़ रहा है?
बचपन में मेरी नानी यह कहा करती थी जो बोओगे वही काटोगे… यह कैसा बीज बो दिया मनुष्य ने की इस तरह की फसल काटनी पढ़ रही है. या प्रकृति हमे कुछ समझाना चाहती है.पर क्या? और कैसे? एक बात तो मानना पड़ेगी की प्रकृति का न्याय एक सा होता है, सभी के लिए. वह भेद नहीं रखती आदमी-औरत का, अमीर-गरीब का, जाती का, और भी तरह तरह के भेद जो मनुष्य में व्याप्त है. प्रकृति ने तो सब को पानी में ला दिया या यूँ कहें की सब में पानी ला दिया. औकात समझा दी. ले लिया हिसाब. दिखा दिया की मनुष्य से ऊपर भी है कोई. उसे जांचने की भूल कतई ना करें. उसका सिखया सबक भुलाये नहीं भूलता. काश की मनुष्य यह समझ पाए की हम चाहे जितना भेद कर ले पर जब ऊपर वाले का कोई न्याय होगा तो वह सभी के लिए बराबर होगा. काश भूगोल का प्राकृतिक आपदाओं का पाठ बचपन में किताबों में ही समझ आ गया होता, और उनके कारण भी याद हो गए होते, प्रकृति के संरक्षण की बात सिर्फ हमने पास होने के लिए ही न पढ़ी होती. काश की हमने अपने आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ तो अच्छा बोया होता. काश में इस काश से बहार निकल के सबको प्रकृति के प्रति संवेदनशील कर पाती…
बहुत प्रभावी लेख है गहरी सोच है इसमें . मुझे भी कभी सही तरह से हिसाब नहीं मिला जीवन से इस लिए भगवान् और प्रकृति के न्याय में विश्वास करती हूँ. जो बोयोगे वही काटोगे ..सही कहा बिलकुल..विपदा से पहले अंदेशा हो जाना और इंसानियत के नाते सब की मदद कर सही राह अपनाना काफी मुश्किल है पर न्यायसंगित प्रकृति की इज्ज़त कर इन्सान को यह अहसास अत्यंत जरूरी है ..की कल भी उसका है , आज भी और बीता हुआ कल भी.
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