
हमारा स्कूल हफ्ते में छह दिन लगता था पर शनिवार को हमे आधे दिन में छुट्टी मिल जाया करती थी और उस दिन हम अपनी पसंद के कपड़े पहन कर जा सकते थे जिससे हमारी स्कूल की पोशाक धुल सके। सभी बच्चे उस दिन-रंग बिरंगे कपड़ों में आते थे। खूब मज़े करते थे।
हमारी कक्षा में एक लड़का पढ़ता था जो शनिवार को भी स्कूल की पोशाक में आता था।
हम उसे बहुत चिढ़ाते थे उसका दिन भर मज़ाक बनाते थे। वह भी हँसता रहता था। कभी बुरा नहीं मानता था। एक दिन मैंने उससे पुछा की तुम हर शनिवार को ऐसा क्यों करते हो। वह बोला मेरी माँ भूल जाती है की आज शनिवार है।
हम कहाँ हारने वाले थे, मैंने कहा की अब हर शुक्रवार को मैं तुम्हें याद दिला दूँगी। मैं उत्सुकता से शुक्रवार का इंतज़ार करने लगी और शुक्रवार आ गया पर वह लड़का उस दिन नहीं आया और फिर शनिवार को स्कूल की पोषाक में ही स्कूल आया। मैंने फिर पूछा और उसका वही जवाब। उन दिनों परीक्षा के फॉर्म भरे जाने थे तो हमारे सर सारे बच्चों से उनके माता पिता के नाम पूछकर उनके व्यवसाय की जानकारी भी भर रहे थे। हमने बड़े मज़े से सारी जानकारी बता दी और दूसरों की ध्यान से सुनने लगे। जब उस लड़के की बारी आई तो उसने अपनी माँ का नाम बताया और पिता के नाम के आगे स्वर्गीय लगाया। उस समय स्वर्गीय शब्द किसी अन्य उपाधि की तरह लगा। पर सर के क्षमा प्रार्थी होने पर कुछ अजीब लगा। किसी की पूछने की हिम्मत न हुई की यह क्या हुआ। पर अपनी उत्सुकता के कारण मैंने सर के बहार निकलते ही स्वर्गीय का मतलब पूछ लिया और उन्होंने बताया की उसके पिता अब नहीं हैं। इस बात की कल्पना तक करना मेरे लिए संभव नहीं था। माता या पिता का जीवन में ना होना समझ से परे था।
जैसे तैसे स्कूल का दिन बीता। घर आकर सारी बात अपने माता पिता को बताई। बहुत दुःख हुआ था सुनकर सो पिताजी दुसरे दिन अपने साथ मुझे भी प्रातः सैर पर ले गए। मैं चुप चाप चल रही थी। तभी वह लड़का मुझे स्कूल की ही पोशाक में अखबार बाँटता दिखा। उस दिन पहली बार में बिना कोई सवाल पूछे सब समझ गयी।