वार्षिकोत्सव की कुर्सियाँ

भारत के स्कूल कॉलेजों में वार्षिकोत्सव एक ऐसा उत्सव है जिसे हर प्राणी जी जान से मनना चाहता है। लगभग एक महीनों के  लिए पढ़ाई लिखाई बन्द कर सभी को अपने भीतर के कलाकार को बाहर लाने का मौका मिलता है जो बाहर आने के लिए किसी पिंजरे में बंद जंगली भेड़िये की तरह तड़पता रहता है, और कॉलेज के वार्षिकोत्सव के बाद फिर पिंजरे में जाकर बंद हो जाता है क्योंकि हमारे देश में कलाकारों के लिए कोई स्थान नहीं है और न ही कोई रोजगार ही है। ग़ालिब, मीर, ज़ौक़, प्रेमचन्द और अन्य कई उच्च कद के नाम गरीबी के चपेट में आ कर ध्वस्त हो गए। कला हमारे देश में या तो साइड बिज़नेस है या कैम्प बिज़नेस एवं वार्षिकोत्सवों के आयोजन का मकसद भी किसी कलाकार की खोज नहीं होता। इस लेख को बहस का मुद्दा न बनाते हुए सीधे किस्सा शुरू करते हैं-

पात्र परिचय
पांडे जी- इंजीनियर श्रीवास्तव के दोस्त।
श्रीवास्तव- पांडे जी के दोस्त, बड़े सरकारी कॉलेज में इंजीनियर।

पांडे-“क्या बात है साहब? खूब चहल पहल दिख रही है।” (इंजीनियर साहब के दोस्त पांडे जी ने इंजीनियर साहब श्रीवास्तव जी से पूछ लिया। )

श्रीवास्तव-“अजी काहे की चहल-पहल जब से नए प्रिंसिपल साहब ने जॉइन किया है तब से रट लगा कर बैठे हैं कि वार्षिकोत्सव करवाएंगे किसी बड़े नेता को बुलाकर और खूब फोटुएँ छपवाएँगे अखबार में।

पांडे- तो श्रीवास्तव जी इसमे बुराई क्या है? इसी बहाने एकाध फ़ोटो आपका भी छप जाएगा।

श्रीवास्तव-खाक छपेगा फ़ोटो। साहब का क्या? उन्होंने तो इच्छा कर ली अब तैयारियां तो हमें करनी हैं। उपर से कॉलेज के वित्त विभाग की कंगाली संभाले नहीं संभल रही।

पांडे-इत्ते बड़े कॉलेज में भी कंगाली का दौर? तनखा तो बट रही हैं न समय पर?

श्रीवास्तव-काहे ऐसे संगीन सवाल पूछ कर दिल की धड़कन में तेजी लाते हो भाई? बीवी बच्चे वाले आदमी हैं, और इस नए जमाने की बीमारी का कोई भरोसा नहीं। कल को बोलेंगे की पुराने मित्र से बात करने से कोई वायरस फैलता है और क्या पता अब तक फैल भी गया हो! और हम टें बोल जाएं।

पांडे- अरे! शुभ-शुभ बोलिये। बीवी बच्चे तो हमारे भी हैं। संध्या काल में मरने मारने की बातें, अरे राम-राम! जाने दीजिए, चलिए चाय पी जाए।

श्रीवास्तव-चलिए पी लेते हैं चाय, वैसे भी नया प्रिंसिपल तो पानी तक को नहीं पूछता। सोचता है हम सब हवा से चल जाएंगे। सो, हवा भरता रहता है और कुछ लोगों में तो चाबी भी भर रखी है।

पांडे-कैसी चाबी?

श्रीवास्तव-अरे! बड़ा ऊंचा खिलाड़ी है। काम के आदमी को सूंघ के पहचान लेता है।

पांडे- तो तुम्हें क्या पहचाना?

श्रीवास्तव-अरे! मुझे तो सूंघ के छोड़ दिया। चपरासियों के काम करा रहा है। लाइटें ठीक करना, सड़क साफ करना, गुसल खानों की मरहम्मत करना, कुर्सियां बनवाना, कार्ड छपवाना, आदि-आदि।

पांडे-अब भी आदि के लिए स्थान है।

श्रीवास्तव-ये तो कॉलेज के काम हैं, वे भी आधे, साले ने घर के भी दे रक्खे हैं।

पांडे-ओह! हो! हो!, यह तो बड़ा ख़सीस निकला।

श्रीवास्तव-तो क्या? मुझे मुँह ज़मीन से मिलाने का शौक है? अच्छा अब इंटरवियू लेना छोड़ और यह बता की क्या मदद कर सकता है तू मेरी?

पांडे-तू बोल क्या करूँ?

श्रीवास्तव-किसी बढ़ई को जनता है? उसे कार्यक्रम के लिए स्टेज पर बैठने को कुर्सियां चाहिए वो भी ऐसी कि- “कहीं न हों जैसी।”

पांडे-बढ़ई तो है एक पहचान का। काम भी अच्छा करता है? अपने मालपानी जी हैं न!

श्रीवास्तव-कौन वो पी डब्लू डी वाले?

पांडे- हाँ वही!

पांडे- उनका फर्नीचर उसी ने बनाया है। ऐसा लगता है कि दहेज का है। खूब चमकता है?

श्रीवास्तव- भाई मैं हाथ जोड़ता हूँ (गिड़गिड़ाते हुए)! कुर्सियाँ बनवा दे। खूब एहसान होगा तेरा।

पांडे-अरे! एहसान कैसा? दोस्त है तू मेरा, भाई जैसा, और फिर कौनसा कुर्सियाँ मुझे बनानी हैं? फोन ही तो करना है। अभी लगता हूँ (मोबाइल निकाल कर मालपानी जी को फ़ोन करता है)

“हेलो! मालपानी जी, अरे! आपको खूब याद कर रहे थे श्रीवास्तव और मैं, वो कह रहा था कि बड़े भले आदमी हैं आप और भाभी जी के तो क्या कहने। कितनी कर्मठ महिला हैं। कितना सुंदर घर सजाया है। वरना आज कल की औरतों को तो पार्टियों और पार्लरों से फुरसत कहाँ। जी वो घर से याद आया! आपकी फर्नीचर में चॉइस बहुत उम्दा है। नंबर दे सकते हैं अपने बढ़ई का। जी अच्छा व्हाट्सएप कर दीजिए! और सब सकुशल? अच्छा नमस्ते! और घर आइये कभी भाभी जी के साथ।”

फोन काट कर कहते हैं- कह रहे हैं व्हाट्सएप करते हैं नंबर। तो कैसी बननी हैं कुर्सियां?

श्रीवास्तव- जैसी इंद्र के दरबार में होती हैं। खुद को इंद्र से कम नहीं समझता वह। कल कह रहा था,” श्रीवास्तव कुर्सियां तो ऐसी होनी चाहिए कि बैठने वाले को जीवन भर याद रहे कि वह कभी कुर्सी पर बैठा था।”

पांडे- हूँ! तो शौकीन है!

श्रीवास्तव- नई कुर्सी मिली है न, हर जगह नई कुर्सी चाहता है। वर्ना जो वार्षिकोत्सव कॉलेज खुलने से लेकर सात सालों में कभी न हुआ वो अचानक क्यों होने लगा? मेरी पर्सनल राय में तो ऐसे किसी उत्सव में पैसे खर्चने की कोई आवश्यकता नहीं है। और इन आज कल के लौंडे लपाटों के लिए तो कतई नहीं। सुना है इतने खतरनाक हैं कि पिछली बार मंत्री जी के दौरे पर तो काली स्याही से सत्कार किया था, बेचारे सूरजमुखी से मंत्री जी के मुख पर भौरों का आक्रमण दिखाई देता था।

पांडे- हाँ श्रीवास्तव खबर तो मैंने भी पढ़ी थी। खैर.. तू तो अपना काम कर। ये ले व्हाट्सएप की टुंग बजी, आ गया नंबर।

श्रीवास्तव-अरे पांडे तेरा बहुत शुक्रिया, तूने मेरा बड़ा काम करवा दिया। मैं आज ही इसको कुर्सी की फोटू भेज दूँगा की कैसी छापनी है कुर्सी।
अरे! बस एक काम और करवा दे एक बेहतरीन दर्जे का फोटुग्राफर और दिलवा दे, बस मेरा तो काम ही आधा हो जाएगा।

पांडे- पहले बोल दिया होता भाई! मालपानी जी के बच्चे की शादी का एल्बम देखा था मैंने, एक नंबर! क्या फोटुएं खींची थी, भाभी जी की तो इतनी बढ़िया कि किसी फिल्म की नायिका दिख रहीं थी।

श्रीवास्तव- मैं देख पा रहा हूँ पांडे तुझे भाभी जी में खासी दिलचस्पी है।

पांडे- देख श्रीवास्तव, कुछ भी मत बोल मैंने तो जो महसूस किया बोल दिया, लगता है तुझे नंबर नहीं चाहिए।

श्रीवास्तव- अरे नहीं भाई, तू तो खामखा बिदक गया। जाने दे भाभी जी को। तू तो फोटुग्राफर का नंबर जुगाड़ दे बस।

पांडे- ठीक है! लेकिन आइंदा ध्यान रहे। कोई ऐसी-वैसी बात नहीं करना।

श्रीवास्तव-अरे न न्ना! कभी नहीं, माफ़ी, दोनों कान पकड़कर। बस तू पैसे की बात भी सम्हाल लेना दोनों से।

पांडे- (दयालु स्वर में) अरे! अपने ही आदमी हैं, जो बजट हो बता देना और दे देना।

कुर्सियां बन कर आती हैं,  वार्षिकोत्सव का दिन आता है, सज जाती हैं। खूब फोटुएं खिंचती हैं। खूब वाह-वाही होती है। फोटुग्राफर ने डिजिटल कैमरे का इस्तेमाल कर फोटुएं शाम को ही सी डी के रूप में भेजने का वादा कर कार्यक्रम की समाप्ति का उत्साह दुगना कर दिया होता है।

शाम को सब निपटने के बाद प्रिंसिपल साहब एलान करते हैं कि वार्षिकोत्सव की फोटुएं बड़ी टी वी पर एक साथ देखी जाएँगी जिसके आयोजन का जिम्मा वाईस प्रिंसिपल मैडम के हाथों में था और साथ ही यह भी तय हुआ कि प्रिंसिपल साहब नई कुर्सी पर बैठकर ही फोटुएं देखेंगे, सो घूम फिर कर अब सारी जिम्मेदारी श्रीवास्तव जी पर आ गई।

श्रीवास्तव जी ने खूब उम्दा इंतेज़ाम दिया फोटुएं देखने का, ओहदे के हिसाब से कुर्सियां सजा दी गईं, और प्रिंसिपल साहब अपनी पूरी टीम और वाईस प्रिंसिपल मैडम के साथ नई कुर्सियों के बीच फोटुएं देखने बैठ  गए। प्रोजेक्टर पर चित्र प्रदर्शनी प्रारंभ हुई। चित्र आगे बढ़ते जा रहे थे किंतु प्रिंसिपल महोदय कहीं नजर नहीं आ रहे थे। वे गुस्से से  लाल पीले और अंततः नीले पड़ गए।
चारों ओर सन्नाटा छा गया…

अगले दिन इंजीनियर श्रीवास्तव को मेमो दे दिया गया जिसमें पूछा गया कि प्रिंसिपल साहब तस्वीरों में से कहाँ गायब हो गए? इसकी जवाबदेही कौन लेगा? जिस पर पहले प्रश्न के जवाब में इंजीनियर साहब लिख रहें है- प्रिंसिपल छोटे कद के होने के कारण दिखे नहीं आदि आदि.. अगले जवाब के लिए वे पांडे को फोन लगाते है.. हैलो! हेलो! पांडे मैं श्रीवास्तव! क्या कहा? आवाज नहीं आ रही?

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