मालूम नहीं इस देश के ये तस्वीरें कोई कैद कर रहा है या नहीं। यह भी नहीं मालूम कि किसी को फर्क पड़ रहा है या नहीं। पर इतना मालूम है कि मैंने मृत्यु के प्रति इतनी असंवेदनशीलता पहले कभी नहीं देखी। इसका कारण यह हो सकता है कि लोग बहुत संख्या में मर रहे हैं। मेरा अनुमान है कि अब तक शायद इस देश में कोई भी ऐसा नहीं बचा होगा जिसने किसी अपने को न खोया हो, फिर चाहे वो अपना, उसका कोई सगा, करीबी मित्र, या दूर का रिश्तेदार हो सकता है। अब आप ही अंदाज लगा सकते हैं कि डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में कितनी मौतें हुई होंगी, और अभी तो हम केवल महामारी के बीच में हैं। इस वक़्त जब कोई किसी के मरने की खबर सुनता है तो बस एक ही शब्द मुंह से निकलता है “अरे!” – इसके बाद कुछ बोलने को नहीं रह जाता। यह दौर ऐसा है जहाँ लोग डिजिटल सामाजिक मंच का भरपूर उपयोग करते हैं। किसी की मृत्यु की खबर पढ़ते ही ‘रिप’ या ‘ॐ शांति’ लिख कर आगे बढ़ जाते हैं, और फिर अपना काम में लग जाते हैं, बिन ये सोचे इस महामारी में हुई प्रत्येक मृत्यु की जिम्मेदारी इस देश में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति की है।
और एक कमाल बात है इस देश में रह रहे लोगों की, वे कभी अपने आप को दोषी नहीं देखते, उनकी कभी कोई गलती नहीं होती, वे बीमार भी होते हैं तो दोष सामने वाले का होता है, और उस सामने वाले के लिए उसके सामने वाले का होता है। वे तो बस शिकार होते हैं शायद इसी को अंग्रेजी में ‘विक्टिम कार्ड’ खेलना कहते हैं। दरअसल इस बेचारगी की आदत उनमें बचपन से ही आ जाती है। वे इतने असुरक्षित माहौल में बड़े होते हैं जहाँ हर घड़ी उन्हें परखा जाता है, जैसे उनका जन्म किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए हुआ हो, जिसमें उन्हें केवल अव्वल आना है। फिर इसमें भी दो फ़ाड़ है, जो अव्वल आये वे उससे कम में असुरक्षित हो जाएंगे और बाकी बचे लोगों को जीने का हक ही नहीं, सो असुरक्षित ही मर जायेंगे। सो सब बेचारे हो गए। फिर इस भयंकर वायरस के फैलने की जिम्मेदरी ले कौन? अव्वल आने वाले लेंगे नहीं, और उनसे नीचे वालों की तो क्या मजाल कि वे कुछ फैला सकें। तो यह वायरस कैसे फैल रहा है कोई जानता नहीं?
कुछ लोग अपने आप को ऐसे भी बहलाये हैं कि किसी पड़ोसी देश ने जैविक हथियार छोड़ दिया, और उसको 2024 तक के लिए सेट कर दिया है। तो जब इस मानसिकता ने इस बीमारी को अपने दिमाग में 2024 तक सेट कर लिया, तब वे इसको फैलने से रोकने के लिए कोई उपाय करेंगे ही क्यों? वे तो मान चुके हैं कि उनके व्यक्तित्व से बड़ा वायरस का व्यक्तित्व है। और चलो एक बार को ये हाइपोथिसिस बना भी लें कि छोड़ दिया हथियार किसी ने, तो आप बचने का कोई प्रयास नहीं करेंगे, अपनी छाती आगे कर देंगे कि आओ वायरस घुस जाओ मेरे भीतर। हमारे पास उदाहरण है ऐसे देश का जहाँ सच में हथियार छोड़े गए, कई लोगों की जान चली गई, पूरे शहर ध्वस्त हो गए, किन्तु वे रिकॉर्ड कम समय में उठ खड़े हुए क्योंकि वहाँ कोई बेचारा नहीं रहता था। किन्तु हमें तो उदहारण केवल परीक्षा की कॉपी में पास होने के लिए लिखने हैं, असल जिंदगी में उदहारण से क्या सीखना। हम हर घड़ी अपने देश की गरीब जनता का हवाला देते रहते हैं, कहते फिरते हैं कि अस्पतालों में सुविधओं की कमी है, तो क्या हम इन असुविधाओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? हम भीख लेने में इतने मसरूफ हैं कि अधिकारों के बारे में सोचने की फुर्सत ही कहाँ है? इस महामारी ने इस देश में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति की कलई खोल कर रख दी। मुसीबत के समय एक दूसरे का साथ देने की बजाय हमने होड़ करी, धंधा किया, और तांडव किया और अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं कि किसी की मृत्यु पर कह रहे हैं -अरे!
लगता है कुछ ज्यादा लंबा लिख दिया!
ख़ैर..