बहुत आगे आ गए हम, खूब उन्नत हो गए, देखो कैसे बढ़िया ढंग से हमारी तरक्की हो रही है, कद, काठी, रंगत, संगत सभी तो निखर आयी है, और फिर बढ़ें भी क्यों न देश हैं हम, उन्नतशील से उन्नत होते। जब हम निकलते हैं तन कर, बन सँवर कर, पूरी चौड़ाई से तो अच्छे अच्छे हमारे जूतों में हमारी संस्कार की कढ़ाई देखते हैं। संस्कार हमारी जोरू का नाम है जिसे प्यार से बीवी या धर्मपत्नी भी कहते हैं। बहुत सुंदर कढ़ाई कढ़ती है वह। उसकी कढ़ाई से ही आप उसकी खूबसूरती का पता लगा सकते हैं क्योंकि हमारी संस्कार को हम घर पर ही रखते हैं घूंघट में, सजा कर, घुंघरू वाली झांझर पहना कर जिससे उसकी सुंदरता तो बढ़ती ही है, और उसकी हर आहट पर हमारा ध्यान भी रहता है।
खैर छोड़िए धर्मपत्नी को, जब धर्म का कोई काम करेंगे तो बिठा लेंगे उसे भी बगल में हवन में आहुति देने अभी क्यों बेकार में समय गवाएं। वैसे समय हमारे सुपुत्र का नाम है। बड़ा ही चंचल है। असल में उसकी की जिद से हम उन्नत शील से उन्नत हुए हैं । देखो कैसी चालकी से समय ने शील हटा दिया उन्नत का, पर आप किसी से कहना मत। दरअसल उन्नत हमारे पड़ोसी की बेटी है खूब हवा में उड़ती थी, पढ़ लिख कर न जाने क्या बन जाना चाहती थी। भाई अब हम देश और हमारे बेटे समय का उन्नत पर दिल आ गया फिर क्या, अब कोई रोक पाया है क्या समय को उठा लाया उन्नत को, अब उन्नत भी हमारे घर के दरवाजों के पीछे रहती है घूंघट में और क्यों न रहे भाई, देश हैं हम, बेटा है हमारा समय।
अरे आप हमें गलत मत समझिए कोई दुश्मनी नहीं है हमारी औरतो से, बल्कि हम तो दूसरी जात वालों से ज्यादा इज्जत देते हैं अपने घर की औरतों को। अब धर्म में लिखा तो नहीं काट सकते न। देश हैं हम समाज के साथ जो रहते हैं। अरे समाज हमारे बाप का नाम है। वैसे तो सारा दिन पड़े रहते हैं बिस्तर पर खाँसते- खखारते परंतु कभी हमे संस्कार की बात तक करते सुन लें तो खाल तक खींचने खड़े हो जाते हैं। उमर भी गिद्ध की लिखा कर लाये हैं। एक बार संस्कार ने बड़े ही धीरे से कहा कि आज भावना नहीं आयी तो तमतमा कर बोले इस कुलक्षणी से घर का काम नहीं होता जो उस भावना के इंतजार में बैठी रहती है। भावना हमारी काम वाली है जिसके बगैर घर का काम तो नहीं चलता परंतु उसकी दो कौंड़ी की भी इज्जत नहीं है न तो हमारे घर में और न ही बाहर। परंतु समाज के आगे मुंह नहीं खोलते, भले ही देश हैं हम।