क्या था अलग मुझ में तुझ में,
कुछ नहीं..
कुछ भी नहीं..
कुछ भी तो नहीं..
मैं देखता तू देखता,
मैं कहता, सुनता, समझता,
महसूस करता दुःख,
रोता, बिलखता, चिल्लाता,
तुझ से गुहार लगता,
तेरी ही तरह मेरी जिन्दगी की,
जो बस अभी शुरू हुई थी,
कुछ करता, बनता, तेरे गम बांटता,
शायद तुझे नयी राह दिखता,
क्यूँ उगला जहर?
क्यूँ काट दिया जड़ से मुझे?
क्यूँ हत्या की?
मेरे साथ मेरे परिवार की,
क्या हुआ हिसाब?
या अभी बाकी है?
कब होगा पूरा?
कितनी लाशें?
कितनी चीखें?
तुम सदा खुद को मरोगे,
हम नहीं मरेंगे,
क्यूंकि हम मरते नहीं,
हम तो जी रहे है,
जो जिन्दा है उन सब में..